नई दिल्ली (हृदयनारायण दीक्षित)। सत्य सामूहिक होता है और राष्ट्र सामूहिक सत्य। राष्ट्रजीवन के लिए इससे बड़ी कोई आस्तिकता नहीं। राष्ट्र सर्वोपरिता भारत की सर्वोच्च निष्ठा है और संविधान देश का राष्ट्रधर्म। राष्ट्र का संवर्धन प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है। राष्ट्रीय एकता, अखंडता और संप्रभुता राष्ट्रजीवन के आधारभूत ध्येय हैं। सतत राष्ट्रीय विमर्श और ध्येयनिष्ठ वाद-विवाद भारत की प्राचीन परंपरा है। संविधान निर्माण के समय भी गजब का राष्ट्रीय विमर्श हुआ था। संविधान सभा 165 दिन चली थी और 17 सत्र हुए थे। सभा में तीखे, पैने वाद-विवाद हुए थे। संविधान प्रवर्तन के बाद संसद राष्ट्रीय विमर्श का सर्वोच्च मंच बनी। स्वतंत्र न्यायपालिका बनी। सर्वोच्च न्यायालय ने संवैधानिक विमर्श में प्रतिष्ठा पाई।
कार्यपालिका संसद और विधानमंडलों के सामने जवाबदेह है। उसके कामकाज आमजनों व समाचार माध्यमों के बीच भी विमर्श का विषय रहते हैं। अब विधायिका, न्यायपालिका व कार्यपालिका सहित मूलभूत अन्य राष्ट्रीय प्रश्नों पर राष्ट्रीय विमर्श का अभाव है। छोटी छोटी घटनाएं राष्ट्रीय विमर्श को धकिया रही हैं। राष्ट्रीय विमर्श का अपहरण हो रहा है। बुनियादी सवाल पृष्ठभूमि में हैं। नकारात्मक दृष्टि लोकमंगलकारी नहीं होती। बीते सप्ताह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने घोषणा की कि ‘देश के सभी गांवों में बिजली पहुंच गई है। हम प्रत्येक घर को बिजली देने का संकल्प पूरा करेंगे।’ गरीबों को नि:शुल्क और बड़ों को थोड़े शुल्क में कनेक्शन देने की सौभाग्य योजना जारी है। सभी गांवों तक बिजली का पहुंचना बड़ी राष्ट्रीय उपलब्धि है, लेकिन इसे राष्ट्रीय विमर्श में स्थान नहीं मिला। इसके सकारात्मक पहलुओं पर चर्चा नहीं हुई। कायदे से इस पर राष्ट्रीय विमर्श होना चाहिए था। विपक्ष को सच स्वीकारते हुए इसके कमजोर पक्षों की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित करना चाहिए था।
इसी को आधार बनाकर स्वच्छ भारत, शौचालय निर्माण आदि बड़ी योजनाओं पर भी राष्ट्रीय विमर्श संभव था, लेकिन अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के स्थानीय पत्राचार ने संपूर्ण राष्ट्रीय विमर्श को धकिया दिया। मो. अली जिन्ना भारत विभाजन और व्यापक हिंसा के अभियुक्त रहे हैं। यह तथ्यगत इतिहास है। उन्होंने कहा था, हिंदू और मुसलमान इतिहास के भिन्न स्नोतों से प्रेरित होते हैं। उनकी वीरगाथाएं भिन्न, महापुरुष भी भिन्न। बहुधा एक महापुरुष दूसरे का शत्रु है। मुसलमान अलग कौम है, अलग राष्ट्र है।’ मुसलमानों के अलग राष्ट्र होने की बात भारत के आधुनिक मुसलमान भी नहीं मानते। तो अब उनके चित्र को लगाए रखने की आवश्यकता क्यों है? नकारात्मक घटनाएं अल्पजीवी होती हैं, लेकिन नकारात्मक दृष्टिकोण दीर्घ जीवी होकर संस्कृति सभ्यता को भी कुप्रभावित करते हैं। राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों पर विवाद नकारात्मक दृष्टिकोण का ही परिणाम है। भारतीय राष्ट्रीय एकता का मूल तत्व संस्कृति है। संस्कृति संवर्धन में काव्य, गीत, संगीत और समूचे सृजन कर्म की विशेष भूमिका होती है। पुरस्कार सृजन का सम्मान हैं। सृजन क्षेत्र से जुड़े तमाम पुरस्कृत महानुभावों से भारी चूक हुई। सम्मानित व्यक्ति को पुरस्कार लेने-देने की शैली पर विवाद नहीं करना चाहिए, लेकिन इस पर सतही विवाद हुआ। राष्ट्रपति भी विवाद के घेरे में लाए गए।
जातिगत भेद राष्ट्रीय एकता में बाधक हैं। समता संवैधानिक ध्येय है। समरसता के बिना समता नहीं आती। कुछ दलों संगठनों ने वंचित दलित के घर भोजन का कार्यक्रम चलाया है। इसका उपहास उड़ाया गया। बेवजह का विवाद हुआ। इसके उद्देश्य पर राष्ट्रीय विमर्श होता तो जाति के उद्भव, विकास और राजनीतिक दुरुपयोग पर व्यापक चर्चा होती। सामाजिक न्याय के संवैधानिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जरूरी अन्य उपकरणों व संस्थाओं पर भी सभी पक्ष अपना विचार रखते, लेकिन व्यापक राष्ट्रीय महत्व के इस प्रश्न पर प्रकट विचार भोजन तक ही सीमित रहे। राष्ट्रीय विमर्श का चीरहरण हो गया। न्यायपालिका भारतीय राजव्यवस्था का मुख्य अंग है। न्यायपालिका की स्वतंत्रता संवैधानिक निष्ठा है। संप्रति सर्वोच्च न्यायालय और केंद्र के बीच जजों की नियुक्तियों पर अप्रिय तकरार है। कोलेजियम ने केएम जोसेफ का नाम प्रोन्नति के लिए सरकार के पास भेजा। बहस के लपेटे में अन्य जज भी आए। सरकार ने तमाम संगत उदाहरण देते हुए जोसेफ पर पुनर्विचार का आग्रह किया। कोर्ट को इस पर आपत्ति क्यों है? क्या जनादेश प्राप्त सरकार न्यायिक नियुक्तियां में केवल हां लिखकर मोहर लगाने की ही एजेंसी है?
विधायिका के सदस्य सांसद और विधायक हरेक पांच वर्ष बाद नया जनादेश लेने के लिए जनता के पास जाने को बाध्य हैं, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान प्रवर्तन के 70 वर्ष बाद भी न्यायपालिका की जवाबदेही सुनिश्चित कराने वाली कोई एजेंसी विकसित नहीं की। न्यायपालिका में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। न्यायपालिका के कामकाज, जवाबदेही का अभाव और जजो की नियुक्तियां आदि विषय व्यापक राष्ट्रीय विमर्श मांगते हैं। न्यायपालिका पर भारत को गर्व है। देश की सभी संस्थाएं और व्यक्ति न्यायालय के आदेशों का सम्मान करते हैं। न्यायालयों में लाखों मुकदमे लंबित हैं। बेशक जजों की कमी है। मोदी सरकार ने जजों की नियुक्ति के लिए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की पहल की थी। सर्वोच्च न्यायालय ने इसे खारिज कर दिया। विधि निर्माण की संस्था संसद है। वह इसे संसद के पास पुनर्विचार के लिए भेज सकता था। ब्रिटिश परंपरा यही है। यहां भारत में ऐसी प्रथा क्यों नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायिक आदेश भी यहां विधि हैं। यह बात अनुचित भी नहीं है, लेकिन स्वयं अपने ही अधिकार बढ़ाने वाले न्यायिक निर्णय विमर्श का विषय क्यों नहीं हैं? कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका समान शक्ति संपन्न हैं। तीनों का शक्ति स्नोत संविधान है।
उन्हें अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए। न्यायपालिका की प्रतिष्ठा के लिए राष्ट्रीय विमर्श जरूरी है। विधि निर्माण और संविधान संशोधन की शक्ति से लैस संसद राष्ट्रीय विमर्श का सर्वोच्च निकाय है। संसद का पिछला सत्र हंगामे की भेंट चढ़ गया। समाचार माध्यमों के एक भाग ने इस तथ्य को राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में लाने की कोशिश की, लेकिन इसी बीच तमाम छोटी घटनाओं ने राष्ट्रीय विमर्श को धकिया दिया। यहां ‘संविधान बचाओ’ की हास्यास्पद मुहिम चली। राजनीतिक लोकल का नेशनल और ग्लोबल बनना आश्चर्यजनक है और राष्ट्रीय महत्व के विषय का लोकल के नीचे दब जाना देश का दुर्भाग्य है। दुनिया के सर्वाधिक वायु प्रदूषित 15 महानगरों में 14 अपने देश के हैं। तो भी वायु प्रदूषण राष्ट्रीय विमर्श का केंद्र नहीं है। शुद्ध पेयजल की उपलब्धता राष्ट्रीय आवश्यकता है। सुशासन की उपलब्धि जैसे विषय को हमेशा राष्ट्रीय विमर्श केंद्र में रहना चाहिए। आर्थिक समृद्धि राष्ट्र राज्य का मुख्य कर्तव्य है। आर्थिक प्रश्न राष्ट्रीय बहस के केंद्र में नहीं आते। ऐसे तमाम आधारभूत प्रश्नों पर राष्ट्रीय विमर्श का अभाव है। सनसनी ही राष्ट्रीय विमर्श के अवसरों को हड़पती है। जनतांत्रिक व्यवस्था में आधारभूत प्रश्नों को राष्ट्रीय विमर्श से धकियाना आत्मघाती कृत्य है।
(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं)