3. राष्ट्रवादी आन्दोलन तथा प्रतिनिधि संस्थाओ की उत्पत्ति (1919-40)
भारत शासन एक्ट 1919
- इस एक्ट के तहत संवैधानिक प्रगति के प्रत्येक चरण के समय ढंग तथा गति का निर्धारण केवल ब्रिटिश संसद करेगी और यह भारत की जनता के किसी आत्मनिर्णय पर आधारित नहीं होगा.
- केन्द्रीय विधान परिषद् का स्थान राज्य परिषद् ( उच्च सदन ) तथा विधान सभा ( निम्न सदन ) वाले द्विसदनीय विधानमंडल ने ले लिया.
- सदस्यों का चुनाव एक्ट के अंतगर्त बनाये गए नियमों के अधीन सीमांकन निर्वाचित क्षेत्रों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से किया जाना था.
- निर्वाचन के लिए विहित अहर्ताओ में बहुत भिन्नता थी और वे सांप्रदायिक समूह, निवास और सम्पत्ति पर आधारित थी.
द्वैधशासन
- 1919 के एक्ट द्वारा आठ प्रमुख प्रान्तों में जिन्हें गवर्नर के प्रान्त कहा जाता था, द्वैधशासन की एक नई पद्धति शुरू की गई.
- विषयों का केंद्रीय तथा प्रांतीय के रूप में हस्तांतरण नियमो द्वारा विस्तृत वर्गीकरण किया गया.
1919 के एक्ट की खामिया
- इसने जिम्मेदार सरकार की मांग को पूरा नहीं किया.
- प्रांतीय विधानमंडल गवर्नर जर्नल की स्वीकृति के वगैर अनेक विषय क्षेत्रो में विधेयक पर बहस नहीं कर सकते थे.
- केंद्र तथा प्रान्तों के बीच शक्तियों के बटवारे के बावजूद पहले के अत्यधिक केन्द्रियमान शासन को संघीय शासन में बदलने का सरकार का कोई इरादा मालूम नहीं पड़ा.
- ब्रिटिश भारत का संविधान एकात्मक राज्य का संविधान ही बना रहा.
- प्रान्तों में द्वैधशासन पूरी तरह से विफल रहा.
- मंत्री विधानमंडल के प्रती सामूहिक रूप से जिम्मेदार नहीं थे वे केवल गवर्नर के व्यक्तिगत रूप से निक्युत सलाहकार थे.
- प्रथम विश्वयुद्ध समाप्त हो चूका था और आम लोगो के मन में अनेक आशाए थी किन्तु उनके हाथ लगे दमनकारी विशेष विधायी प्रस्ताव जिन्हें रौलेट बिल कहा गया.
- भारतीय जनमत का व्यापक विरोध होने के बावजूद उन्हें पास कर दिया गया, जिसके फलस्वरूप गांधीजी के नेतृत्व में स्वराज के लिए सत्याग्रह, असहयोग और खिलाफत आन्दोलन शुरू किए गए.
साइमन आयोग
- 1919 के एक्ट अधीन एक्ट के कार्यकरण की जाँच करने तथा उसके सम्बन्ध में रिपोर्ट देने और सुधार के लिए आगे और सिफारिशे करने के लिए, दस वर्ष बाद 1929 में एक आयोग नियुक्त करने का उपबंध था. व्याप्त असंतोष को देखते हुए भारतीय संवैधानिक आयोग (साइमन कमीशन) 1927 में अर्थात निर्धारित समय के दो वर्ष पहले ही नियुक्त कर दिया गया लेकिन क्योंकी इसमें सारे-के-सारे सदस्य अंग्रेज थे. इसलिए इससे भारतीय जनता की भावनाओ को और भी ठेस पहुंची.
पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव
- कांग्रेस धीरे-धीरे पूर्ण स्वराज के अपने लक्ष्य की ओर बढ़ चुकी थी किन्तु कलकत्ता अधिवेशन में यह निर्णय लिया गया की अंग्रेजो को एक वर्ष के अन्दर-अन्दर डोमिनियन दर्जे की मांग को स्वीकार करने के लिए एक आखिरी मौका दिया जाए.
- डोमिनियन दर्जे की मांग ठुकरा दिए जाने के बाद कांग्रेस के 1929 के लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज के सम्बन्ध में एक प्रस्ताव पास किया गया. नमक-कर सम्बन्धी कानून को तोड़ने के आह्वान तथा समुद्र तक पहुँचने के लिए गाँधी जी दांडी यात्रा के साथ ही सविनय अवज्ञा आन्दोलन आरम्भ हो गया.
गोलमेज सम्मेलन तथा श्वेतपत्र
- नवम्बर 1930 में लन्दन में एक गोलमेज सम्मेलन बुलाने का निर्णय लिया गया. इसके बाद ऐसे ही दो सम्मेलन और हुए.
- मार्च 1933 में एक श्वेतपत्र प्रकाशित किया. उसमें एक नए संविधान की रुपरेखा दी गई थी. इस योजना में संघीय ढांचे तथा प्रांतीय स्वायत्ता के लिए उपबंध सम्मिलित थे. इसमें केंद्र में द्वैधशासन तथा प्रान्तों में जिम्मेवार सरकारों का प्रस्ताव किया गया था.
- लार्ड लिनलिथगो संयुक्त समिति के अध्यक्ष थे.
- संयुक्त समिति ने नवम्बर 1934 की रिपोर्ट में फेडरेशन की स्थापना तभी की जाएगी यदि कम-से-कम 50% देशी रेयासते इसमें शामिल होने के लिए तैयार हो जाए.
- 19 दिसम्बर, 1934 को ब्रिटिश संसद में विधेयक 4 अगस्त, 1935 को सम्राट की अनुमति पाकर वह भारत शासन एक्ट 1935 बन गया.
भारत शासन एक्ट - 1935
- भारत शासन एक्ट 1935 की सर्वाधिक उल्लेखनीय विशेषता यह थी की इसमें ब्रिटिश प्रान्तों तथा संघ में शामिल होने के लिए तैयार भारतीय रियास्तो की एक अखिल भारतीय फेडरेशन की परिकल्पना की गई थी.
- 1930 के गोलमेज सम्मेलन तक भारतीय प्रान्त केवल केंद्र के एजेंट थे. 1935 के एक्ट में पहली बार ऐसी संघीय प्रणाली का उपबंध किया गया जिसमें न केवल ब्रिटिश भारत के गवर्नरो के प्रान्त बल्कि चीफ कमिश्नरो के प्रान्त देशी रियासते भी शामिल हो.
- 1919 के संविधान का सिद्धांत विकेंद्रीकरण था न की फेडरेशन का. नए एक्ट के अधीन प्रान्तों को पहली बार विधि अपने ढंग से कार्यपालक तथा विधायी शक्तियों का प्रयोग करनेवाली पृथक इकाईयों के रूप में मान्यता दी गई.
- इस एक्ट के द्वारा वर्मा को भारत से अलग कर दिया गया और उड़ीसा तथा सिंध के दो नए प्रान्त बना दिए गए.
- विधानमंडल प्रश्नों तथा अनुपूरक प्रश्नों से माध्यम से प्रशासन पर कुछ नियंत्रण रख सकता था. किन्तु विधानमंडल लगभग 80% अनुदान मांगो को स्वीकार या अस्वीकार कर सकता था.
- विधायी क्षेत्र में विधानमंडल समवर्ती सूचि में सम्मिलित विषयों पर भी कानून पास कर सकता था. किन्तु टकराव होने की स्थिति में संघीय कानून ही प्रभावी रहेगा.
- भारत शासन एक्ट 1935 के अधीन प्रान्तिये विधानमंडलों से चुनाव फरवरी 1937 में कराये गए चुनावों में कांग्रेस की एक बार फिर जबरदस्त जित हुई. कुल मिलाकर कांग्रेस को 836 सामान्य स्थानों में से 715 स्थान प्राप्त हुए. मुस्लिम लीग मुसलमानों के लिए आरक्षित स्थानों पर तथा मुस्लिम बहुसंख्यक प्रान्तों में भी बुरी तरह पराजित हो गई. वस्तुतया यह 482 मुस्लिम स्थानों में से केवल 51 स्थान ही प्राप्त कर सकी.
- कांग्रेस को मद्रास, संयुक्त प्रान्त, बिहार, मध्य प्रान्त और उड़ीसा में स्पष्ट बहुमत प्राप्त हो गया और यह बम्बई में कुल स्थानों में से लगभग आधे स्थानों पर विजयी रही. असम तथा उत्तर पश्चिम सीमांत प्रान्त में यह सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरकर सामने आई. पंजाब में युनियलिस्ट पार्टी को स्पस्ट बहुमत मिला. बंगाल तथा सिंध में अनेक छोटे-छोटे ग्रुप बन गए.
- इस एक्ट के द्वारा देश को एक लिखित संविधान देने का प्रयास किया गया था. हालाकि भारत की जनता या उसके प्रतिनिधियों का इस दस्तावेज के निर्माण में कोई हाथ नहीं था. और इसमें अनेक गंभीर खामिया खामियाँ थी. फिर भी इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता की कुल मिलाकर तथा कई दृष्टीयो से यह एक प्रगतिशील कदम था.
- प्रधानमंत्री (प्रीमियर) तथा मंत्री (मिनिस्टर ) जैसे शब्दों का पहली बार प्रयोग किया गया और प्रधानमंत्री की प्राथमिकता को मान्यता दी गई.
क्रिप्स मिशन
- जिस समय द्वितीय विश्वयुद्ध एक निर्णायक दौड़ से गुजर रहा था ब्रिटिश शासन द्वारा यह अनुभव किया गया की भारतीय जनमत का स्वेच्छा से दिया गया सहयोग अधिक मूल्यवान होगा. किन्तु क्रिप्स मिशन अपने उद्देश्य में विफल रहा. उसके प्रस्ताओ को सभी राजनीतिक दलों ने ठुकरा दिया. प्रस्ताव में मान लिया गया था की भारत का दर्जा डोमिनियन का होगा और युद्ध के बाद भारतीयों को अधिकार होगा की वे अपनी संविधान सभा में अपने लिए संविधान बना सके. किन्तु इनके अंतर्गत प्रान्तों को नए संविधान को स्वीकार करने या न करने की छुट दे दी गई थी. मुस्लिम लीग ने इन प्रस्ताओं को ठुकरा दिया क्योंकि देश का सांप्रदायिक आधार पर विभाजन करने की उसकी मांग को नामंजूर इसलिए कर दिया क्योंकि उनमें भारत को छोटे-छोटे टुकड़ो में बाँटने की संभावनओं के लिए द्वार खोल दिया गया था और युद्ध के दौड़ान भारतीय प्रतिनिधियों को वास्तव में प्रभावी सत्ता का हस्तांतरण करने की कोई व्यवस्था नहीं की गई थी गाँधी जी ने इन प्रस्ताओं को बाद की तारीख का चैक कहकर निंदा की.
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