डिप्रेशन में आप सड़क पर अकेले खड़े होकर ऊलजुलूल बात करें, या बाल बिखराकर घूमें, ऐसा जरूरी नहीं. अच्छे-खासे दिखते, खाते-पीते और रुटीन काम करते हुए भी हो सकता है कि आप या आपका कोई करीबी डिप्रेशन में हो. आप गूगल पर डिप्रेशन सर्च कर रहे हैं, यही इस बात की ओर पहला इशारा है.
तो अब डिप्रेशन की जांच के लिए आपको ठिठकने या इंतजार करने की जरूरत नहीं. गूगल एक टूल ला रहा है, जिसमें नौ सवाल होंगे. इनके जवाब आपको शुरुआती मदद करेंगे, ये समझने में कि आप डिप्रेशन के शिकार हैं या नहीं. जैसे ही आप डिप्रेशन टाइप कर सर्च करेंगे, तुरंत ये क्वेश्चनायर खुल जाएगा. इसे पेशेंट हेल्थ क्वेश्चनायर नाम दिया गया है.
शोध कहते हैं कि पहले आठ साल तो लोगों को खुद समझ नहीं आ पाता कि वे अवसाद में हैं, वे लक्षणों को नजरअंदाज करते रहते हैं. उन्हें मानने से इन्कार करते हैं. हमारे यहां ये स्थिति और खराब है. ऐसी ही परेशानियों के निदान के लिए गूगल ये क्विज ला रहा है. इसमें इंटरनेट पर डिप्रेशन सर्च करते ही खुली लिंक आपसे पूछेगी कि ‘पता करें कि आपको डिप्रेशन है या नहीं’. इसपर क्लिक करते ही नौ सवाल एक के बाद एक खुलेंगे, जो आपको एक निष्कर्ष तक पहुंचने में मदद करेंगे.
नौ सवालों के कारण इसे 'पीएचक्यू-9' नाम दिया गया है. ये सवाल कुछ इस तरह के होंगे कि क्या आप काम में अपनी दिलचस्पी खो रहे हैं या क्या आपको पढ़ने या किसी से बात करते हुए ध्यान केंद्रित करने में मुश्किल आती है. इसी तासीर के सवालों के जरिए आप एक जवाब तक पहुंच सकेंगे.
यह क्विज प्रयोग के तौर पर अभी अमेरिकी इंटरनेट यूजर्स के लिेए ही होगा. बाद में दूसरे देशों में लाया जाएगा. इसके लिए गूगल ने अमेरिका के नेशनल अलायंस ऑन मेंटल इलनेस (नामी) से गठजोड़ किया है. हालांकि खुद 'नामी' का मानना है कि डिप्रेशन की पुष्टि के लिए अकेला ये टूल नाकाफी है लेकिन इसकी मदद से आप एक निष्कर्ष तक पहुंचकर मनोचिकित्सक से मिल सकते हैं ताकि वो आगे आपकी मदद कर सके. क्विज और आपके जवाब पूरी तरह से कॉन्फिडेंशियल रहेंगे.
इसी दिशा में भविष्य में कई और प्रयोग किए जा सकते हैं, जिसमें सोशल साइट्स पर आपकी पोस्ट या ट्वीट आपके मन की चुगली करेंगे और आपको प्रोफेशनल या सोशल मदद लेने के लिए तैयार करेंगे. हमारे देश में इस तरह का टूल काफी मददगार साबित हो सकता है, जहां कई दूसरे शब्दों की तरह डिप्रेशन भी एक ‘वर्जित’ शब्द है. मजाल है कि कोई खुद को या किसी और को डिप्रेस बोल सके. हां, यहां मजाक उड़ाने के लिए डिप्रेस टर्म धड़ल्ले से इस्तेमाल की जाती है. ऐसे में डिप्रेशन से जूझ रहे लोग या तो उसी हालत में जीने को मजबूर रहते हैं या फिर डॉक्टर से तब मिलते हैं, जब दवाएं ही एकमात्र सहारा बचें.
कहीं दूसरों को पता न चल जाए, इसके लिए तमाम जतन करने में आधी ताकत खत्म हो जाती है. यहां वेल बीइंग के नाम पर शरीर की सेहत पर तो फिर भी कुछ ध्यान दिया जाता है लेकिन मानसिक वेल बीइंग अभी भी एलियन शब्द है. मनोचिकित्सक यहां पागलों के डॉक्टर माने जाते हैं. ऐसे में डिप्रेशन की जांच के लिए कम ही लोग एक्सपर्ट सलाह लेते हैं.
पांच करोड़ से ज्यादा लोगों के साथ हमारा देश उन कुछ देशों में शामिल हो चुका है जो डिप्रेशन से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं. यूएन की हालिया रिपोर्ट बताती है कि भारत और चीन में अवसादग्रस्त लोग सबसे ज्यादा हैं. वहीं खुदकुशी के मामले में भी भारत और देशों से आगे है.
वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन की रिपोर्ट ऐसा कहती है कि 2012 में खुदकुशी करने वाले लोगों की तादात भारत में सबसे ज्यादा रही. इस आंकड़े में वे लोग शामिल नहीं है, जिन्होंने खुदकुशी की नाकामयाब कोशिश की. एंजाइटी के मरीज भी यहां दूसरे देशों से कहीं ज्यादा है. रिसर्च ये भी बताते हैं कि महिलाएं पुरुषों से ज्यादा अवसाद में हैं.
बाहरी दुनिया में मन को शरीर जितनी ही तवज्जो देने की कोशिश की जा रही है. एक ई-मेल इसी ओर इशारा करता है. इसमें एक एम्प्लॉयी अपने बॉस को अपनी मेंटल हेल्थ के लिए छुट्टी का मेल करती है. उसके बॉस का जवाब भी सराहा जाने लायक है. वो स्टिग्मा को तोड़ने के लिए उसका शुक्रिया जताते हुए लिखता है कि तुम्हारा खुलकर ये लिखना बताता है कि मन की सेहत भी उतनी ही जरूरी है. सिक लीव पर सिर्फ शरीर का हक नहीं. एम्पॉयी ने बॉस के जवाब सहित ईमेल को ट्वीट किया था. (वो ईमेल, जिसमें एम्प्लॉयी ने बॉस से मन की सेहत के लिए मांगी छुट्टी)
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